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और अब एक-दूसरे को देखना भी संभव न था.
क्योंकि एक की साँस दूसरी की पहचान थी.
हम बैठे थे
किसी ने मेरी हथेली पर अपना हाथ रखा.
( अनुवाद: ''' जगदीश महंतीमहान्ति''') (प्रस्तुत कविता का अनुवाद '''साहित्य अमृत''' के मई २००८ अंक में प्रकाशित)