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<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png]]</td>
<td rowspan=2>&nbsp;<font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''अकाल-दर्शनतुम कब जानोगे?<br>&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[धूमिलशमशाद इलाही अंसारी]]</td>
</tr>
</table>
<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none">
भूख कौन उपजाता है :<poem>वह इरादा जो तरह देता हैतुम कब जानोगे?या तुम पीछे छोड गए थेमेरे बिलखते,मासूम पिता को घुटनों-घुटनों ख़ून में लथपथ अधजली लाशों और धधकते घरों के बीच दमघोटूँ धुएँ से भरी उन गलियों में जिन्हें दौड कर पार करने में वह घृणा समर्थ न था। नफ़रत और हैवानियत के घने कुहासे में मेरे पिता ने अपने भाईयों,परिजनों के डरे सहमे चेहरे विलुप्त होते देखे थे। दूषित नारों के व्यापारियों ने विखण्डन के ज्वार पर बैठा कर जो ख्वाब तुम्हारी आँखों पर पट्टी बाँधकरमें भर दिए थे हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?तुम्हें उन्हें जीना था, लेकिन तुम पीछे छोड गए थे मेरे बिलखते,मासूम पिता को उसके आधे परिवार के साथ... मैं पूछ्ता हूँ तुमसे आख़िर क्या हासिल हुआ तुम्हें उन कथित नए नारों से नया देश, नए रास्ते और नए इतिहास से जो आरम्भ होता कासिम, गज़नी,लंग से और मुशर्रफ़ तक जाता।
उस चालाक आदमी पिछ्ली आधी सदी में क्या हुआ हासिल युद्ध,चन्द धमाके और बामियान में बुद्ध की हत्या। तुम कब जानोगे कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं। तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव विचार और अस्तित्व भंजन नहीं। तुम कब जानोगे कि तुम्हारे गहरे हरे रंग छाप नारों की प्रतिध्वनि मेरे घर में भगवा गर्म करती है। जो घर परिवार तुम बेसहारा, लाचार, जर्जर पीछे छोड कर गए थे वहाँ भी कभी-कभी त्रिशूल का भय सताता है।तुम्हारे गहरे हरे रंग ने मेरी बात भगवे का उत्तररंग भी गहरा कर दिया है। नहीं दिया। उसने गलियों तुम कब जानोगे कि वह ऐतिहासिक ऊर्जा जो विघटन का कारण बनी वह नए भारत की संजीवनी बन सकती थी जो लोग परस्पर हत्याएँ कर रहे थे वे बंजर ज़मीन को सब्ज़ बना सकते थे कल-कारखाने चला सकते थे निर्माण के विशाल पर्वत पर चढ़ कर संसार को बता सकते थे कि यह है एक विकसित, जनतांत्रिक,सभ्य, विशाल हिंदुस्तान तुक कब जानोगे कि तुम्हारे बिना यह कार्य अब तक अधूरा है अधर में लटका है क्योंकि तुम पीछे छोड़ गए थे मेरे बिलखते मासूम पिता को तुम कब जानोगे कि मेरे निरीह पिता को सहारा देने वाले हाथ हर शाम कृष्ण की आराधना में जुड़ते थे गंगा का जमुना से जुड़ने का रहस्य बुद्ध का मौन और सड़कों महावीर की करुणा कबीर के दोहे, खुसरो की रुबाइयाँ मंदिर में वंदना और घरों मस्जिदों मेंइबादत बाढ़ तुम कैसे समझोगे ? क्योंकि तुमने इस धरती की तरह फैले हुए बच्चों तमाम मनीषा के विपरीत सरहदें चिंतन में भी बनाई थी तुम कब जानोगे कि धर्म के नाम पर निर्मित यह पिशाच अब ख़ुद तुमसे मुक्त हो चुका है वह हर पल तुम्हारे अस्तित्व को लील रहा है क्योंकि तुम पीछे छोड़ गए थे मेरे बिलखते मासूम पिता को तुम कब जानोगे कि अतीत असीम, अमर और अविभाज्य है वह सत्य की ओर इशारा कियाभांति पवित्र है कब तक झुठलाओगे उसे कितनी नस्लें और हँसने लगा।भोगेंगी तुम्हारे इतिहास के कदाचार को
मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –क्यों नहीं बताते उन्हें कि हम सब एक ही थे हमारे ही हाथों ने बोई थी पहली फसल मोहन जोदडो में 'बच्चे तो बेकारी सिन्धु सभ्यता के दिनों आदिम मकान हमने ही बनाये थे हमने ही रची थी वेदों की बरकत ऋचाएँ हम सब थे महाभारत हमारा ही था राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर हमने ही स्वीकार किया था मोहम्मद का पैगाम हमने ही बनाई थी पीरों की दरगाहें तुम कब जानोगे कि झूठ के पैर नहीं होते झूठ को नहीं मिलती अमरता तुम्हारे हर घर में रफ़ी की आवाज़ मीना, मधुबाला, ऐश्वर्या की सुन्दरता कृष्ण की बाँसुरी पर लहराती दिलों की धड़कनें हर नौजवान में छिपा दिलीप, अमित , शाहरुख़ का चेहरा तुम्हारे झूठ से बड़ा सच और क्या हो सकता है तुम कब मानोगे कि तुम सब कुछ जानते हो सियासी फ़रेब की रेत में दबी आँखें, दिमाग, दिल और वजूद सच की आंधी में बर्लिन की दीवार की भाँति कभी भी ढह सकता है। झूठ की चादर में लिपटे बम, बन्दूकें और बारूद घोर असत्य की दीवारें, सरहदें, फ़ौजें नपुंसक बन सकती हैं'इससे वे लाखों बेगुनाह लोगों का बहा खून कभी भी सहमत मांग सकता है हिसाब उजडे़ घरों की बद-दुआयें अपना असर दिखा सकती हैं, क्योंकि जो हमारी हालत पर तरस खाकरतुम पीछे छोड गये थे मेरे बिलखते मासूम पिता को.. तुम कब जानोगे कि हम भी खतावार हैं हमने भी चली हैं सियासी चालें हमने भी तोडी हैं कसमें हमें भी बतानी हैं गांधी की जवानी की भूलें समझनी है जिन्नाह की नादानी नौसिखिया कांग्रेस की झूठी मर्दानगी अंग्रेज़ों की घोडे़ की चाल, खाने शह-मात का खेल फ़ैज़, फ़राज़,जोश,जालिब का दर्द और ज़फ़र के बिखरे ख्वाब, क्योंकि तुम पीछे छोड गये थे मेरे बिलखते मासूम पिता को.. तुम कब जानोगे कि मेरे पिता कई बरस हुए गुज़र गए हैं खुली आँखों में ख्वाब और आस लिएरसद देते हैं।कि तुम लौट आओगे उनका कहना वो जुमला मुझे भी कचोटता है कि बच्चेहमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।"जो छोड़ कर गया है, उसे ही लौटना होगा"
लेकिन मैनें जब से होश सम्भाला है मैं भी यही वे भूलते हैंदोहराता हूँ दरअस्ल, पेड़ों पर मेरे बच्चे नहींभी अब हो गये हैं जवान हमारे अपराध फूलते वो भी सवाल करते हैंमगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तरनहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहाफिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर'जनता नई रोशनी, नई तर्ज़, नई समझ के हित में' स्थानांतरितहो गया।साथ
मैंने खुद को समझाया – यार!तुम्हारे यहाँ भी यही है हाल उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरहआज नहीं तो कल ये शोर और तेज़ होगा क्यों झिझकते होजवान नस्लें जायज़ सवाल पूछेंगी हज़ारों बरस के साझें चूल्हे?क्या तुम्हें किसी का सामना करना हैपचास साठ बरस की अलहदगी?तुम्हें देने होंगे जवाब क्योंकि तुम पीछे छोड गए थे मेरे बिलखते मासूम पिता को.. तुम कब जानोगे कि पीछे छुटे,जले,बिखरे,टूटे घर फ़िर आबाद हो गए हैं वहाँ कुआँ झाँकते आदमी फ़िर से बस गए हैं बचपन कीकिलकारियाँ, जवानी की रौनक और बुढा़पे का वैभव तुम्हारा पलंग, तुम्हारी कुर्सी तुम्हारी किताबें, तुम्हारे ख़त तुम्हारी गलियाँ, वो छत और आम जामुन के पेड़ सभी कुछ का़यम हैं प्रतीक्षारत है तुम्हें वापस आना होगा तुम्हें ही लौटना होगा क्योंकि तुम्ही तो छोडकर गये थे मेरे बिलखते मासूम पिता को.. सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।बासठ बरस पूर्व
और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।
मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...उन्होंने मुझे टोक दिया है।अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम परअँगुली रखने से मना करते हैं।जिनका आधे से ज़्यादा शरीरभेड़ियों ने खा लिया हैवे इस जंगल की सराहना करते हैं –'भारतवर्ष नदियों का देश है।बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।यह दूसरी बात है कि इस बारउन्हें पानी ने मारा है। मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।अनाज में छिपे उस आदमी की नीयतनहीं समझतेजो पूरे समुदाय सेअपनी गिज़ा वसूल करता है –कभी 'गाय' सेरचनाकाल : 13.08.2009कभी 'हाथ' से 'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँमैं उन्हें समझाता हूँ –यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा हैकि जिस उम्र मेंमेरी माँ का चेहराझुर्रियों भारत-पाक विभाजन की झोली बन गया हैउसी उम्र 62वीं वर्षगाँठ की मेरी पड़ौस की महिलाके चेहरे पूर्व संध्या परमेरी प्रेमिका के चेहरे-सालोच है। ले चुपचाप सुनते हैं।उनकी आँखों में विरक्ति है :पछतावा है;संकोच हैया क्या है कुछ पता नहीं चलता।वे इस कदर पस्त हैं : कि तटस्थ हैं।और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश मेंएकता युद्ध की और दयाअकाल की पूंजी है।क्रान्ति –यहाँ के असंग लोगों के लिएकिसी अबोध बच्चे के –हाथों की जूजी है।
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