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इस साल भी / ओमप्रकाश सारस्वत

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<poem>इस साल भी
एक और साल को
दे दिया धक्का

तारीखें
हाथों में
भींचे रहीं गुस्सा
कैलैंण्डरों ने
यद्यपि खूब बाँटा
दिनों को
त्यौहारों का बोनस

पर
फ्रीज़ हुए चेहरों पर
खिला नहीं एक भी बुरूंश का फूल

किसी जमींकंद में
उगी नहीं कोई आँख

सदभाव रहा निरादृत
संभावनाएं पराइमुख

और उपलब्धियाँ
'इनकम टैक्स' की तरह
कट गईं वर्षांत में

हलाल की कमाई
सरकारी जगराते की थाली में
चढ़ गयी
पर तिस पर
कानून
अपना डंडा चमकाता हुआ
बोलाः
चूँकि तुम कमाते हो
उसे सिर्फ
अपनों को ही खिलाते हो!

अरे अंधों!
कब तक
पुरानी कहावतों पर
चलते रहोगे

देखो
आजे के ज़माने में
ये माँ-बाप,भाई बहन आदि
सब मिथ्या अनुबंध हैं
उनमें बस उतना ही संबंध

उसने प्रश्न में
सुझाव का पुट मिलाते हुए
दागा___
अगर आयकर नहीं देना था
रुपयों को___
अंडों की तरह सेना था
तो
कोई नेता,
टिंबर या शराब के ठेकेदार
बनते
कानून की मंडी पर रहते
लोग 'सर-सर' कहते

या फिर कोई ऊँचे अधिकारी आदि बनते
सरकारी टेबलों पर
आकाशवेल की तरह तनते
ओर 'सेवा मुक्ति पर
उत्तम 'मनीप्लाँट' जनते

पर आप ने
अपने लिए जो यह
शिक्षा के कुसुंभे की___
क्यारी चुनी है
इसकी कुंडली
किस कंप्यूटर ने गुनी है?

(भाई! भारत के गणकों का दिमाग
अभी आयात होता है)
फिर इस देश के
पचहत्तर प्रतिशत पर
शतप्रतिशत जिम्मेदारियां हैं
उन सभी के घरों में
खाद-माँगती किशोर क्यारियाँ हैं
तो क्या इन सभी को
फूलती रहने की छूट दे दें?
क्या अपराधी को भागने के लिए
अपने ही बूट दे दें?
</poem>
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