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|रचनाकार=सरोज परमार
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[[Category:कविता]]
<poem>ह्रदय के फ्रेम में बार-बार
तुम्हारी तस्वीर सहेजने की कोशिश की
पर हर बार वही और वही
तस्वीर छोटी हो जाती है और फ्रेम बड़ा
और मेरी तलाश शुरू हो जाती है।
समन्दर के तहखानों से लेकर
तीतखर्नी मेघों को लाँघती
सूरज के देश तक ढूँढ आई
चेहरों के हजूमों में
कोई चेहरा अपना नहीं लगता।
मैं आज बहुत थक गई हूँ।
इतनी
कि अलगनी पर सूखते कपड़े
मेरे अस्तित्व का बोध कराते हैं
आँगन में पड़ा, बदरंग घड़ा
मेरी जबरन दबाई गई प्यास की
काया है।
दीवारों के गालों पर
आँसुओं के सूखे हुए निशान
छतों पर झूलते मकड़ी
के जाले,
किसी दीमक खाई कड़ी में
गौरैया का उजड़ा घोंसला
तो हटा सकती हूँ
मगर अपने खालीपन के अहसास
को मिटा नहीं सकती।
कतरा कतरा ढल रही रात में
इस फ्रेम की चिन्दियाँ उड़ने लगती हैं।
मुझे फिक्र है कहीं ऐसी तस्वीर
एक उम्र के बाद मिल भी गई
तो उसे सहेजूँगी कहाँ ?

</poem>
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