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{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=भविष्य के नाम पर धरती होने का सुख / केशव
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कुछ शेष हो
तो संभव हो रहना
मृत्यु के इस अविजित प्रदेश में
मैं दौड़ रहा हूँ
चाकू जैसे मौसमों से
बहते हैं मेरे तरल स्वर
तीर की मानिंद
ठोस अँधेरे अन्धेरे में बढ़ता हूँ
अपने हथियारों के साथ
तो लगता है अभी कुछ है शेष
भाषाओं के ज्ञान के बिना भी
और संभावना की कोठरी में भी
रहा जा सकता है उस शेष के साथ.साथ।
मृत्यु के इस अविजित प्रदेश में
मैं दौड़ रहा हूंहूँ
प्यार और घ़णा करते हुए
आदमी के शहर और जंगल ेंयुद्धरत हूंहूँइस संभावना के जहर ज़हर कोनया नाम देने के लियेलिए
बाहर और भीतर के सभी घने
चाकू जैसे मौसमों से
बहते हैं मेरे तरल स्वर
सोचता हूं मैं
तीर की मानिंद
ठोस अँधेरे अन्धेरे में बढ़ता हूँ
अपने हथियारों के साथ
तो लगता है अभी कुछ है शेष
भाषाओं के ज्ञान के बिना भी
और संभावना की कोठरी में भी
रहा जा सकता है उस शेष के साथ.साथ।
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