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|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=सिंदूरी साँझ और ख़ामोश आदमी / सुदर्शन वशिष्ठ
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<poem>'''एक'''
बादल
बिन खटखटाए
घुस आते भीतर
बैठक,रसोई,बेडरूम तक
चुपचाप
भई कुछ तो शरम करो
जब बादल मेहमान होते हैं घर में
दरवाज़ा खिड़की रोशनदान
कहीं से भी आ घुसते हैं।


'''दो'''
इतनी गहरी धुंध
हाथ को हाथ न सूझे
कहाँ छिप गये
गुमनाम प्रेमी।

'''तीन'''
बादल तैर रहे पहाड़ियों में
जैसे भर रहे खाली जगह
जिसे न भर सका कोई
या जैसे रुई बिखर-बिखर गई
अनजान धुनिए से।

'''चार'''

बादल की किश्तियाँ
खेता है कोई
रोज़-रोज़ पहाड़् धोता है कोई।

'''पाँच'''

किसी ने धुखा दिया धूप
बलखाता धुआँ
उठ रहा धीमे-धीमे।


'''छः'''

निकल रहे बादल
पसर रहे घाटियों में
धीरे धीरे धीरे
कहाँ बनते कहाँ बिगड़ते
कहाँ खो जाते
कोई न जाने।</poem>
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