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|रचनाकार=जोश मलीहाबादी
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[[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal}}<poem>क़दम इंसाँ का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है
क़दम इंसाँ का राहनज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना फिर भी हुजूम-ए-दहर कशमकश में थर्रा ही जाता है <br>चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा आदमी घबरा ही जाता है<br><br>
नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़ख़िलाफ़-आश्ना फिर ए-मसलेहत मैं भी <br>समझता हूँ मगर नासेह हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा वो आते हैं तो चेहरे पर तहय्युर आ ही जाता है <br><br>
ख़िलाफ़-ए-मसलेहत मैं भी समझता हूँ मगर नासेह <br>हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएँ आँधियाँ बनकर मगर जो घिर के आता है वो आते हैं तो चेहरे पर तहय्युर आ बादल छा ही जाता है <br><br>
हवायेँ ज़ोर कितना ही लगायेँ आँधियाँ बनकर <br>शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फ़ितरत है इंसाँ की मगर जो घिर के आता है वो बादल छा मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता आ ही जाता है <br><br>
शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फ़ितरत है इंसाँ की <br>मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता आ ही जाता है <br><br> समझती हैं म'अल-ए-गुल मगर क्या ज़ोर-ए-फ़ितरत है <br>सहर होते ही कलियों को तबस्सुम आ ही जाता है <br><br/poem>
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