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रोबोट / सुदर्शन वशिष्ठ

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<poem>भाग्य का खेल नहीं है जीवन न ही पुरूषार्थ
कर्म भी कसौटी नहीं है
जीवन बन्द है फायलों में
फायलें जो सरकती हैं
रिमोट दबने से
दौड़ती हैं हवा में लहराती चमगादड़ की तरह
अँधेरे में
उड़ती हैं एक टेबल से दूसरी तक
इनमें बंद हैं न जाने कितने जीवन
कितनी आशाएँ, विश्वास

और जो खोल रहे हैं इनके पँख
रोबोट हैं भाव या विचार शून्य
कहते हैं वह सब जो कहलवाया जाता है
लिखते हैं जो लिखवाया जाता है
मशीन नहीं लिख सकती अपना कुछ
सृजन प्रतिभा तो खोखली है इनकी
दिमागों में भरा है खालीपन।

सरकारों में अब बैठे हैं चपरासी ही चपरासी
ऊपर से नीचे तक
चपरासी का नहीं होता अपना दिमाग
रोबोट की तरह करता है वही
जो कहा जाए
कहते हैं फायल रख दो तो
रख देता है
कहो उठा लो, तो उठा लेता है
खो बैठे है सब अपना विवेक
रोबोट बनने से
सचिवालय की भीड़ में
चपरासी से चीफ
अब एक से दिखते हैं।
</poem>
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