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{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=अनकहा / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
<poem>नए नए सूट सिलवाती है
नौकरीमें आते ही लड़कियाँ
जिन्हें हसरत से शो रूम में
लटके देखती आई हैं बचपन से!

नहीं खाती लड़कियाँ
सुबह का खाना जल्दी में ऑफिस की
रहता चाहती हैं स्लिम और स्मार्ट
शिमला की धूप सी
दूसरे कमरों में
जाने से शर्माती हैं लड़कियाँ।
जब जब हिम्मत कर
बैठती हैं लड़कियाँ
हमजोलियों से बतियाने
बे वजह बुला लेते हैं
अधेड़ और बूढ़े
मेंहदी रंगे खूसट अफसर
बडः जाता है भाव
जब ढूँढते हैं समधी नौकरी में लड़कियाँ
महीने की पगार का सुख
हो जाता है हावी
नहीं रह जाता डर जलने जलाने का
मना करना हो तो भी बहाना है आसान
नहीं चाहिए हमें नौकरी में लड़कियाँ।
नौकरी में लड़कियाँ
चिंता करती हैं माँ की, बाप की
बेकार भाई बहनों की
ऐसे में बुढ़ा भी जाती हैं
नौकरी में लड़कियाँ।
परियों सी है नौकरी में लड़्कियाँ
उड़ती है हँसती है गाती है
और कभी कभी रोती भी हैं नौकरी में लड़कियाँ।

बोल्ड बनती हैं
रहती हैं किराये के मकानों में अकेली
और कभी कभी
डरती भीं हैं नौकरी में लड़कियाँ।

नौकरी में लड़कियाँ
परिवर्तन है समाज का
खुलापन है आधुनिकता है
आदमी के बरोबर होने में
लड़का समान होने में
शाबाशी पाती हैं लड़कियाँ
कभी-कभी बहुत
कीमत भी चुकाती हैं
नौकरी में लड़कियाँ।

ढोती हैं लड़्कियाँ
लड़कों का बोझ
माँ सी सहनशीलता
पिता सी चिंता
कई बार माता पिता भाई
सब कुछ एक साथ
बन जाती हैं नौकरी में लड़कियाँ।

पैसा पैसा जोड़
सहेजती हैं दहेज
देखती है सपना घुड़सवार राजकुमार का
हकीकत में फोन करती हैं एम्बुलैंस को
ढोती हैं दवाईयाँ
बनती हैं मरद माँ की बीमारी पर।
</poem>
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