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ग्रहण-एक / सुदर्शन वशिष्ठ

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<poem>डर और आतंक था ग्रहण
जंत्री में छिपा भयानक राक्षस
और एक दिन
जब राहु लील गया सूर्य को अजगर की तरह
लोग चिल्लाए थेः
"छड़ी दे ओ पापिया राहुआ-केतुआ दिहाड़े छडी दे।"

रूँधी हुई थी उनकी आवाज़
मनों में अंदेशा था अंधेरे में खोने का
अन्धेरा,जो प्रेतों को जन्म देता है
प्रेत जो आदमी का मरा हुआ रूप है।

अन्धेरा खतरनाक रहा है हर युग में।
ग्रहण की घड़ी में
गर्भवती चाची छिपा दी थी ओबरी में
पिता डगमगाए से थे
पीली धूप में कुशासन जमाए
मंत्रा जाप कर रहे थे दादा
पूर्व जन्म के पाप थे जो
हरिद्वार नहीं जा पाए पर्व पर
आँगन में चौड़ी थाली में रखा था पानी
जिसमें घबराते हुए देख लेते हम कभी
काँपते सूर्य को ।


ग्रहण के बाद छिड़काव के लिए
गंगाजल पहले ही ढूँढ रखा था दादी ने
साथ में दान के लिए चावल दाल तिल
सभी जन सहमें से बैठे थे कोनों में
राम् नाम जपते
सूर्य काँप रहा था।

ग्रहण के बाद सारा पानी
पका हुआ भोजन बाहर गिराया गया
खाने वाला कोई नहीं था
दान दिए गए थे खुल कर
लेने वाला कोई नहीं था
दान दिए गए थे खुल कर
लेने वाला कोई नहीं था
दादी बोली थी
ग्रहण का दान भारी होता है
कलेजे वाला ही उठा सकेगा
आश्वासन हुए सभी जब पूरी धूप खिली
नहाए तो लगा
ग्रहण एक पर्व है। </poem>
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