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मेला-एक / सुदर्शन वशिष्ठ

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<poem>ब्याही बिटिया के आगमन की तरह
करता है इंतज़ार मंगलू
धार के मेले का।
अनेक गाँवों से घिरी
ढलाने में लगता है धार का मेला
ऊपर ,चोटी पर बने मन्दिर एं
चढ़ाता है वह फसल का पहला दाना
गाय के दूध की पहली धार का घी।

जहाँ साल बाद मिलते हैं वे सब
जो नहीं मिल पाते कहीं
साल भर लम्बा दुख सुख
लिखा होता है चेहरे पर
लेखा जोखा साल भर का
हवा के साथ तैरता है।


हरी घास पर जलेबियाँ खाते हुए
देखता है मँगलू रंग-बिरंगी दुनिया
जो सिमट आई है ढलान की छाती पर।

टमक़ बजाते हुए नाचता है मंगलू झूम-झूम
शाम गहराते तक घूमता है
नाचता है मस्ती में
अँधेरा घिरने पर
जब लौटता है घर
शुरू करता है मिलन की कहानी
उसी उल्लास से
सच,मेले मिलने के हैं।
</poem>
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