भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
निरख सखी ये खंजन आये।<br>
फेरे उन मेरे रजन रंजन ने नयन इधर मन भाये।<br>
फैला उनके तन का आतप, मन-से सर-सरसाये,<br>
घूमे वे इस ओर वहाँ ये यहाँ हंस उड़ छाये।<br>
शिशिर, न फिर गिरि वन में।<br>
जितना मांगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में।<br>
कितना कपन कंपन तुझे चाहिए, ले मेरे इस तन में, <br>
सखी कह रही, पांडुरता का क्या अभाव आनन में।<br>
वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस भाजन में,<br>
तो मोती-सा मैं अकिंचना रखूँ रकखूँ उसको मन में।<br>
हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं - अपने इस जीवन में,<br>
तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव-भुवन में ॥४॥ <br><br>
यही आता है इस मन में।<br>
छोड़ धाम-धन जा कर मैं भी रहूँ उस उसी वन में।<br>
प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर,<br>
व्यथा रहे पर साथ-साथ ही समाधान भरपूर।<br>
हर्ष डूबा हो रोदन में,<br>
यही आता है इस मन में,<br>
बीच बीच में कभी देख लूँ मैं झुरमुठ झुरमुट की ओट,<br>
जब वे निकल जायँ तब लेटूँ उसी धूल में लोट।<br>
रहे रहें रत वे निज साधन में,<br>
यही आता है इस मन में।<br>
जाती-जाती, गाती-गाती, कह जाऊँ यह बात,<br>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits