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Kavita Kosh से
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हम हुए अजनबी खुद से भी आपकी
आईने की परेशानियों का सबब
इक ऊहापोह में थी उलझ रह गई
गांव की चंद पगडंिडयों पगडंडि़यों के सिरे
आंख मलते हुए स्वप्न बुनते रहे
फड़फड़ाते हुए पृष्ठ इतिहास के
मन्नतों के मगर जल न पाए दिए
हम अभी तक खड़े हैं उसी मोड़ पर
तुम जहां थे रुके एक पल के लिए
मुट्ठियों में हैं अवशेष, शपथों के जो
थीं उठाईं गई उमर् उम्र् भर के लिए
दृष्टि का मेरा आकाश सिमटा हुआ
कुछ न दिख पाता इक दायरे के परे
मंत्र भी प्राथर्ना के हैं सहमे डरे
शेष बाकी नहीं गदर् गर्द् भी राह मेंसीटियां बस हवाआें हवाओं की बजती रहीं
नित बदलते हुए विश्व चलता रहा
कोई ठहराव गति में नहीं आ सका
एक पल भी नहीं हाथ में आ सका
भावनाएं बिछी रह गईं राह सी
आस्था ने उगाए जो सूरज सभी
भोर को सांझ करके निगलते रहे
हम बदल कर हुए अजनबी आपकी
तुमने जिसको सुना गूंज थी मौन की
जो कि उजड़ी बहारों में छुप रह गई
आगमन की प्रतीक्षा मदन की लिए
कोंपलें आंख खोले हुए रह गईं
टूटे शीशे की आवाज़्ा आवाज संगीत बन
लहिरयों पे हवा की बिखरती रही
गंध जो संदली थी हवा में उड़ी
पत्थरों में उगी नागफ़िनयां रहीं
आप भर्म से उन्हें फूल कहते रहे
नैन के निझर्रों से टपकते रहे
आईने पर जमी गदर् गर्द् में आईना
बिंब अपना नहीं देख पाया कभी
हां नज़र के भरम में उलझते हुए
तुम रहे, वे रहे आैर और रहे हैं सभी
एक वह मिथ्या भर्म तोड़ने के लिए
कोशिशें लेखनी नित्य करती रही
हम बदल कर हुए अजनबी आपकी
रात जैसे तो मन के अंधेरे रहे
हो गईं बंद पत्तों की जब जालियां
रोशनी क्या छनी आैर और बरसात क्या
मृग तो तृष्णा के पीछे भटकता रहा
स्वप्न क्यों हर कली सा चटकता रहा
कौन सा है निमित साथ लेकर जिसे
हम हुए अजनबी खुद से भी आपकी
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