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एक ख़्वाब और / अली सरदार जाफ़री

114 bytes added, 13:26, 15 सितम्बर 2009
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|रचनाकार=अली सरदार जाफ़री
|संग्रह=मेरा सफ़र / अली सरदार जाफ़री
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<poem>
ख़्वाब अब हुस्ने-तसव्वुर के उफ़ुक़<ref>क्षतिज</ref> से है परे
दिल के इक जज़्वएजज़्बा-ए-मासूम ने देखे थे जो ख़्वाब
और ताबीरों के तपते हुए सहराओं में
तश्नगी<ref>प्यास</ref> आब्लापा<ref>जिसके पैरों में छले पडे़ हुए हों</ref> शो’ला-ब-कफ़ मीजे-सराब<ref>मॄगतृष्णा की तीरगी</ref>
आह पत्थर की लकीरें हैं कि यादों के नुक़ूश
कौन लिख सकता है फिर उम्रे-गुज़श्ता की किताब
बीते लमहात लम्हात के सोये हुए तूफ़ानों में
तैरते फिरते हैं फूटी हुई आँखों के हबाब<ref>बुलबुले</ref>
ताबिशे-रंगे-शफ़क़<ref>उषा की लालिमा की चमक</ref>, आतिशे-रूए-ख़ुर्शीद<ref>सूर्य के मुख की आग</ref>
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