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{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=अंगारों पर नंगे पाँव / माधव कौशिक
}}
<poem>गली गांव के सारे किस्से गलियारों को कहन दें
रोशन सन्नाटों की घातें,अंधियारों को कहने दें।
धीरे-धीरे अहसासों की घाटी जमकर बर्फ़ हुई
कैसे आग बुझी रिश्तों की अंगारों को कहने दें।
जंगल की हर जंगली मस्ती शहरों वाले क्या जाने,
बेघर लोगों का अपनापन बंजारों को कहने दें।
दरवाज़े तो झूठ बोलने का फ़न कब सीख गए
घर के सारे सच्चे शिकवे दीवारों को कहने दें ।
सच्चाई का गला घोंटना अब उनकी मजबूरी है
अख़बारों से डरना कैसा अख़बारों को कहने दें।
इसे ख़ुदकुशी कहने वालों कोई अंधी साज़िश है
होरी की हत्या का क़िस्सा हत्यारों को कहने दें।
</poem>
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|रचनाकार=माधव कौशिक
|संग्रह=अंगारों पर नंगे पाँव / माधव कौशिक
}}
<poem>गली गांव के सारे किस्से गलियारों को कहन दें
रोशन सन्नाटों की घातें,अंधियारों को कहने दें।
धीरे-धीरे अहसासों की घाटी जमकर बर्फ़ हुई
कैसे आग बुझी रिश्तों की अंगारों को कहने दें।
जंगल की हर जंगली मस्ती शहरों वाले क्या जाने,
बेघर लोगों का अपनापन बंजारों को कहने दें।
दरवाज़े तो झूठ बोलने का फ़न कब सीख गए
घर के सारे सच्चे शिकवे दीवारों को कहने दें ।
सच्चाई का गला घोंटना अब उनकी मजबूरी है
अख़बारों से डरना कैसा अख़बारों को कहने दें।
इसे ख़ुदकुशी कहने वालों कोई अंधी साज़िश है
होरी की हत्या का क़िस्सा हत्यारों को कहने दें।
</poem>