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{{KKRachna
|रचनाकार=रंजना भाटिया
|संग्रह=
}}
<poem>धरती कॅन्वस है
और आकाश है ब्रश
तेरी तस्वीर ..
फिर भी नहीं बनती
मेरे हाथ...
रोक लिए हैं वक़्त ने

(और लम्हे हँस रहें हैं...)

उतार दिए हैं
बीती रात ने
अपने बासी मुखोटे
आज फ़िर हुमस के आई
चाँदनी रात है ..
फिजां वही थम गई है

(और तारे हँस रहे हैं )

शब्द गुम हैं
फिर भी
सदियो से
कितना कुछ कह चुकी हूँ मैं
तुमने सुना नहीं शायद

(और लफ्ज़ हँस रहें हैं)

खिला हुआ है वसन्त
खुशबू पर भी है
उजाला बहका हुआ
गुम हो रही है साँसे

(और फूल हँस रहे हैं )


कहीं जमा दिल के कोने में
कोई हिमनाद है
पिघल रहा आज यह,
कैसा यह स्पर्श साथ है
खिलखिलाती छलिया हँसी
वहीँ उलझ कर रह गई है

(और राग दिल के हँस रहे हैं )</poem>
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