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|रचनाकार=प्राण शर्मा
|संग्रह=सुराही / प्राण शर्मा
}}
<poem>
१६१
एक दिन साधु जी मुझको मिल गए बाज़ार में
मैंने पूछा पीजियेगा क़तरे कुछ शराब के
साधु जी बोले नहीं, तू तो बड़ा नादान है
झोली में मेरी नशा का सब पड़ा सामान है
१६२
एक दिन बीवी ने ने पूछा क्या हुआ आपको
छोड़ डाला है भला क्या इस सुरा के शाप को
मैंने बीवी से कहा मेरी सुरा सर्वस्व है
छोड़ सकता है कोई अपनी ही माई-बाप को
१६३
होश न हो ये हुई कब रात कब आयी सहर
सूर्य भी किस ओर से निकला तथा डूबा किधर
मदिरा पीने का मज़ा तब है कदम के साथ ही
ये ज़मीं और आसमा सब झूमते आयें नज़र
१६४
जिंदगी है आत्मा है ज्ञान है
मदभरा संगीत है और गान है
सारी दुनिया के लिए ये सोमरस
साक़िया, तेरा अनूठा दान है
१६५
ज़िंदगी की साज-सरगम हो न हो
पायलों की छम छमा छम हो न हो
आज जी भर कर पिला दे साक़िया
कौन जाने कल मेरा दम हो न हो
१६६
क्या नज़ारें हैं छलकते प्याला के
क्या गिनाऊँ गुन तुम्हारी हाला के
जागते- सोते मुझे ऐ साक़िया
सपने भी आते हैं तो मधुशाला के
१६७
कौन कहता है की पीना पाप है
कौन कहता है कि ये अभिशाप है
गुन सुरा के शुष्क जन जाने कहाँ
ईश पाने को यही इक जाप है
१६८
मस्तियाँ भरपूर लाती है सुरा
वेदना पल में मिटाती है सुरा
मैं भुला सकता नहीं इसका असर
रंग कुछ ऐसा चढ़ाती है सुरा
१६९
नाव गुस्से की कभी खेते नहीं
हर किसी की बद दुआ लेते नहीं
क्रोध सारा मस्तियों में घोल दो
पी के मदिरा गालियाँ देते नहीं
१७०
चलते-चलते गीत गाते हैं कदम
नूपुरों से झनझनाते हैं कदम
झूमता है मन मगर उससे अधिक
मस्तियों में झूम जाते हैं कदम</poem>
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|रचनाकार=प्राण शर्मा
|संग्रह=सुराही / प्राण शर्मा
}}
<poem>
१६१
एक दिन साधु जी मुझको मिल गए बाज़ार में
मैंने पूछा पीजियेगा क़तरे कुछ शराब के
साधु जी बोले नहीं, तू तो बड़ा नादान है
झोली में मेरी नशा का सब पड़ा सामान है
१६२
एक दिन बीवी ने ने पूछा क्या हुआ आपको
छोड़ डाला है भला क्या इस सुरा के शाप को
मैंने बीवी से कहा मेरी सुरा सर्वस्व है
छोड़ सकता है कोई अपनी ही माई-बाप को
१६३
होश न हो ये हुई कब रात कब आयी सहर
सूर्य भी किस ओर से निकला तथा डूबा किधर
मदिरा पीने का मज़ा तब है कदम के साथ ही
ये ज़मीं और आसमा सब झूमते आयें नज़र
१६४
जिंदगी है आत्मा है ज्ञान है
मदभरा संगीत है और गान है
सारी दुनिया के लिए ये सोमरस
साक़िया, तेरा अनूठा दान है
१६५
ज़िंदगी की साज-सरगम हो न हो
पायलों की छम छमा छम हो न हो
आज जी भर कर पिला दे साक़िया
कौन जाने कल मेरा दम हो न हो
१६६
क्या नज़ारें हैं छलकते प्याला के
क्या गिनाऊँ गुन तुम्हारी हाला के
जागते- सोते मुझे ऐ साक़िया
सपने भी आते हैं तो मधुशाला के
१६७
कौन कहता है की पीना पाप है
कौन कहता है कि ये अभिशाप है
गुन सुरा के शुष्क जन जाने कहाँ
ईश पाने को यही इक जाप है
१६८
मस्तियाँ भरपूर लाती है सुरा
वेदना पल में मिटाती है सुरा
मैं भुला सकता नहीं इसका असर
रंग कुछ ऐसा चढ़ाती है सुरा
१६९
नाव गुस्से की कभी खेते नहीं
हर किसी की बद दुआ लेते नहीं
क्रोध सारा मस्तियों में घोल दो
पी के मदिरा गालियाँ देते नहीं
१७०
चलते-चलते गीत गाते हैं कदम
नूपुरों से झनझनाते हैं कदम
झूमता है मन मगर उससे अधिक
मस्तियों में झूम जाते हैं कदम</poem>