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{{KKRachna
|रचनाकार=प्राण शर्मा
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झूमती हैं डालियाँ पुरवाईयों में
क्यों न कूकें कोयलें अमराईयों में

जिंदगानी को बिताएं सादगी से
क्या रखा है दोस्तो चतुराईयों में

जी में आता है कि सुनता ही रहूँ मैं
डूबा हूँ कुछ इस तरह शहनाईयों में

इम्तिहान उनका न लो ऐ दोस्तो तुम
जी रहे हैं लोग जो कठिनाईयों में

ढूँढ लाते हैं वहां से भी बहुत कुछ
जाते हैं जो झील की गहराईयों में</poem>
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