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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"}}{{KKCatKavita}}<poem>ओ हर सुबह जगाने वाले, ओ हर शाम सुलाने वाले
दुःख रचना था इतना जग में, तो फिर मुझे नयन मत देता
जिस दरवाज़े गया ,मिले बैठे अभाव, कुछ बने भिखारी
पतझर के घर, गिरवी थी ,मन जो भी मोह गई फुलावारी
कोई था बदहाल धुप धूप में, कोई था गमगीन छावों छाँवों में
महलों से कुटियों तक थी सुख की दुःख से रिश्तेदारी
ओ हर खेल खिलाने वाले , ओ हर रस रचाने वाले
घुने खिलोने खिलौने थे जो तेरे, गुडियों गुड़ियों को बचपन मत देता
गीले सब रुमाल अश्रु की पनहारिन हर एक डगर थी
शबनम की बूदों बूंदों तक पर निर्दयी धुप धूप की कड़ी नज़र थी
निरवंशी थे स्वपन दर्द से मुक्त न था कोई भी आँचल
कुछ के चोट लगी थी बाहर कुछ के चोट लगी भीतर थी
आंसू इतने प्यारे थे तो मौसम को सावन मत देता
भूख़ फलती थी यूँ गलियों में , ज्यों फले योवन यौवन कनेर का
बीच ज़िन्दगी और मौत के फासला था बस एक मुंडेर का
मजबूरी इस कदर की बहारों में गाने वाली बुलबुल को
दो दानो के लिए करना पड़ता था कीर्तन कुल्लेर का
ओ हर पलना झुलाने वाले ओ हर पलंग बीछाने बिछाने वाले
सोना इतना मुश्किल था, तो सुख के लाख सपन मत देता
यूँ चलती थी हाट की बिकते फूल , दाम पाते थे माली
और यहीं तक नहीं , आड़ लेके सोने के सिहांसन की
पूनम को बदचलन बताती थी अमावास की रजनी काली
ओ हर सुबह जगाने वाले ओ हर शाम सुलाने वाले
दुःख रचना था इतना जग में तो फिर मुझे नयन मत देता
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