भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
31 bytes removed,
09:30, 30 सितम्बर 2009
'''{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद |संग्रह=}}{{KKCatKavita}}<poem>जरासंध की जंघाओं से दो फांक हो करजुडते हैं इस तरह टुकडे अस्तित्व के'''<br /> जैसे कि छोटी नदिया गंगा में मिल गयी होचाहो तो जाँच कर लोअब मिल गया है सब कुछ, एक रंग हो गया हैहर हर हुई है गंगे, हर कुछ समा गया हैफिर उठ खडा हुआ हूँ, हिम्मत बटोर ली हैमैं जानता हूँ दुनिया भी भीम हो गयी हैवो दांव-पेंच जानें कि फिर चिरा न जाऊंलेकिन लडूंगा जब तक सागर में मिल न जाऊं
जरासंध की जंघाओं से मैं जानता हूँ कान्हा तुम राज जानते होटुकडा उठा के तृण कादो फांक हो कर<br />जुडते हैं इस तरह टुकडे अस्तित्व के<br />तुमने उलटा रखा है ऐसेजैसे कि छोटी नदिया गंगा में मिल गयी हो<br />चाहो तो जाँच कर लो<br />अब मिल गया वक्त मेरा मुझको छला किये है सब कुछ, एक रंग हो गया है<br />हर हर हुई है गंगे, हर कुछ समा गया है<br />फिर उठ खडा हुआ हूँ, हिम्मत बटोर ली है<br />मैं जानता हूँ दुनिया भी भीम हो गयी है<br />वो दांव-पेंच जानें कि फिर चिरा न जाऊं<br />लेकिन लडूंगा जब तक सागर में मिल न जाऊं<br />
मैं जानता हूँ कान्हा तुम राज जानते हो<br />टुकडा उठा के तृण का<br />दो फांक कर के तुमने उलटा रखा है एसे<br />जैसे कि वक्त मेरा मुझको छला किये है<br /> मैं मुस्कुरा रहा हूँ<br />मैं मिटने जा रहा हूँ<br />तुममें समा रहा हूँ<br />फिर ये सवाल होगा, क्या मुझसे वक्त जीता?<br />तुम सोच रखो उत्तर, तुम ठेके हो सत्य के<br />जब सामना करेंगे मेरे टुकडे अस्तित्व के...<br /poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader