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देख, रात है काली कितनी!
क्या उन्मत्त समीरण आता,मानव कर का दीप बुझाता,
क्या जुगुनूँ जल-जल करता है तरु के नीड़ों की रखवाली!
देख, रात है काली कितनी!
</poem>
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