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<poem>ऊषा के सँग, पहिन अस्र्णिमाअरुणिमा
मेरी सुरत बावली बोली-
 
उतर न सके प्राण सपनों से,
 
मुझे एक सपने में ले ले।
 
मेरा कौन कसाला झेले?
 
 
तेर एक-एक सपने पर
 
सौ-सौ जग न्यौछावर राजा।
 
छोड़ा तेरा जगत-बखेड़ा
 
चल उठ, अब सपनों में खेलें?
 
मेरा कौन कसाला झेले?
 
 
देख, देख, उस ओर `मित्र' की
 
इस बाजू पंकज की दूरी,
 
और देख उसकी किरनों में
 
यह हँस-हँस जय माला मेले।
 
मेरा कौन कसाला झेले?
 
 
पंकज का हँसना,
 
मेरा रो देना,
 
क्या अपराध हुआ यह?
 
कि मैं जन्म तुझमें ले आया
 उपजा नहीं कीच के ढेल।ढेले।
मेरा कौन कसाला झेले?
 
 
तो भी मैं ऊषा के स्वर में
 
फूल-फूल मुख-पंकज धोकर
 
जी, हँस उठी आँसुओं में से
 
छुपी वेदना में रस घोले।
 
मेरा कौन कसाला झेले?
 
 
कितनी दूर?
 
कि इतनी दूरी!
 
ऊगे भले प्रभाकर मेरे,
 
क्यों ऊगे? जी पहुँच न पाता
 
यह अभाग अब किससे खेले?
 
मेरा कौन कसाला झेले?
 
 
प्रात: आँसू ढुलकाकर भी
 
खिली पखुड़ियाँ, पंकज किलके,
 
मैं भाँवरिया खेल न जानी
 
अपने साजन से हिल-मिल के।
 
मेरा कौन कसाला झेले?
 
 
दर्पण देखा, यह क्या दीखा?
 
मेरा चित्र, कि तेरी छाया?
 
मुसकाहट पर चढ़कर बैरी
 रहा बिखेरे चमक के ढेलढेले
मेरा कौन कसाला झेले?
 
यह प्रहार? चोखा गठ-बंधन!
 
चुंबन में यह मीठा दंशन।
 
`पिये इरादे, खाये संकट'
 
इतना क्या कम है अपनापन?
 
बहुत हुआ, ये चिड़ियाँ चहकीं,
 
ले सपने फूलों में ले ले।
 
मेरा कौन कसाला झेले?
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