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Kavita Kosh से
अपना अवतार नहीं पहचाना।
मुझमें बे काबू हो जाने--
वाला ज्वार नहीं पहचाना;
और ’बिछुड़’से आमंत्रित
निर्दय संहार नहीं पहचाना।
विद्युति! होओगी क्षण भर
पथ-दर्शक होने का साथी,
यहाँ बदलियाँ ही होंगी
बादल दल के रोने का साथी।
पास रहो या दूर, कसक बन-
कर रहना ही तुमको भाया,
किन्तु हृदय से दूर न जाने
कहाँ-कहाँ यह दर्द उठाया।
मीरा कहती है मतवाली
दरदी को दरदी पहचाने,
दरद और दरदी के रिश्तों--
को, पगली मीरा क्या जाने।
धन्य भाग, जी से पुतली पर
मनुहारों में आ जाते हो,
कभी-कभी आने का विभ्रम
आँखों तक पहुँचा जाते हो।
तुम ही तो कहते हो मैं हूँ
जी का ज्वर उतारने वाला,
व्याकुलता कर दूर, लाड़िली
छबियों का सँवारने वाला।
कालिन्दी के तीर अमित का
अभिमत रूप धारने वाला,
केवल एक सिसक का गाहक,
तन मन प्राण वारने वाला।
ऋतुओं की चढ़-उतर किन्तु
तुममें तूफान उठा कब पाई?
तारों से, प्यारों के तारों
पर आने की सुधि कब आई।
मेरी साँसें उस नभ पर पंख
हों, जहाँ डोलते हो तुम,
मेरी आहें पद सुहलावें
हँसकर जहाँ बोलते हो तुम।
मेरी साधें पथ पर बिछी--
हुई, करती हों प्राण-प्रतीक्षा,
मेरी अमर निराशा बनकर
रहे, प्रणय-मंदिर की दीक्षा।
बस इतना दो, ’तुम मेरे हो’
कहने का अधिकार न खोऊँ,
और पुतलियों में गा जाओ
जब अपने को तुममें खोऊँ!
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