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रघुपति! भक्ति करत कठिनाई।<br />
कहत सुगम करनी अपार, जानै सोई जेहि बनि आई॥<br />
जो जेहिं कला कुसलता कहँ, सोई सुलभ सदा सुखकारी॥<br />
सफरी सनमुख जल प्रवाह, सुरसरी बहै गज भारी॥<br />
ज्यो सर्करा मिले सिकता महँ, बल तैं न कोउ बिलगावै॥<br />
अति रसज्ञ सूच्छम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै॥<br />
सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवै निन्द्रा तजि जोगी॥<br />
सोई हरिपद अनुभवै परम सुख, अतिसय द्रवैत बियोगी॥<br />
सोक, मोह, भय, हरष, दिवस, निसि, देस काल तहँ नाहीं॥<br />
तुलसीदास यहि दसाहीन, संसय निर्मूल न जाहीं॥<br />
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