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}}
{{KKCatKavita}}<poem>मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे<br>सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ,<br>रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी ,<br>और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा !<br>पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा ,<br>बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला ।<br>सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये ।<br><br>
मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनो तक ,<br>बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर ।<br>मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे ,<br>ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था ।<br><br>
अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे ।<br>कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने<br>ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई<br>सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन ।<br><br>
औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये<br>गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर<br>मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की<br>गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर<br>बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे ।<br>भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों ।<br><br>
मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को<br>और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन ।<br>किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे<br>टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा ,<br>उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से ।<br><br>
देखा आँगन के कोने मे कई नवागत<br>छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है ।<br>छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की;<br>या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं ,प्यारी -<br>जो भी हो , वे हरे हरे उल्लास से भरे<br>पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे<br>डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से ।<br><br>
निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता-<br>सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले ,<br>बीज सेम के रोपे थे मैने आँगन मे<br>और उन्ही से बौने पौधौं की यह पलटन<br>मेरी आँखो के सम्मुख अब खडी गर्व से ,<br>नन्हे नाटे पैर पटक , बढ़ती जाती है ।<br><br>
तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे<br>अनगिनती पत्तो से लद भर गयी झाडियाँ<br>हरे भरे टँग गये कई मखमली चन्दोवे<br>बेलें फैल गई बल खा , आँगन मे लहरा<br>और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का<br>हरे हरे सौ झरने फूट ऊपर को<br>मै अवाक रह गया वंश कैसे बढता है<br><br>
यह धरती कितना देती है । धरती माता<br>कितना देती है अपने प्यारे पुत्रो को<br>नहीं समझ पाया था मै उसके महत्व को<br>बचपन मे , छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर<br><br>
रत्न प्रसविनि है वसुधा , अब समझ सका हूँ ।<br>इसमे सच्ची समता के दाने बोने है<br>इसमे जन की क्षमता के दाने बोने है<br>इसमे मानव ममता के दाने बोने है<br>जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसले<br>मानवता की - जीवन क्ष्रम से हँसे दिशाएं<br>हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे । <br><br/poem>
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