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|संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन पंत
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क्या मेरी आत्मा का चिर धन ?
मैं रहता नित उन्मन, उन्मन !
लगता अपूर्ण मानव-जीवन,<br>मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन।<br><br>
जग-जीवन में उल्लास मुझे,<br>नव आशा; नव अभिलाष मुझे;<br>ईश्वर पर चिर विश्वास मुझे;<br><br>
चाहिए विश्व को नव जीवन<br>
मैं आकुल रे उन्मन उन्मन !
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