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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…
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{{KKRachna
|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
|संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
}}
<poem>
श्री भगवानुवाच
तू मोसों घनेरौ, नेह करै
कल्यान मैं चाहूँ , यथार्थ तेरौ ,
मेरौ मर्म सुनौ हे महाबाहो!
तू भक्त मेरौ, मैं पार्थ! तेरौ
ना देवन ना ही महर्षि गण,
उत्पत्ति कौ मोरी जानत हैं,
अति आदि हूँ कारण यहि सबकौ
कोऊ बिरलौ मोहे पिछानत हैं
लोकेश, अनादि अजन्मा, मैं
यहि रूपहीं जो मोहें ज्ञात करें,
तिन तत्त्व सों जानति ज्ञानी जन,
और पाप सबहिं, हुइ जात परे
भय, सत्य, क्षमा, और यश अपयश,
शम, दम, तप, तत्त्व कौ ज्ञान हूँ मैं.
उत्पत्ति-प्रलय सुख-दुखन कौ,
नियमित कर्ता हूँ, विधान हूँ मैं
तप दान कीरति अपकीरति ,
संतोष अहिंसा और सत हैं.
सब प्रानिन के बहु भाव विविध.,
सब मोसों ही तो उपजत हैं
ऋषि सप्त मनु चौदह उनसों,
सनकादि भये पहिले जो भी.
निष्पन्न मोरे संकल्पन सों,
भये प्रजा आदि जग में जो भी
जिन योगन शक्ति विभूतिन कौ,
मोरे तत्वन कौ पहिचानत हैं.
तिन ध्यान योग सों संशय बिनु,
सगरे मुझ माहीं समावत हैं
यहि जगत सृष्टि कौ कारण मैं,
करमन क्षमता मोसों उपजै
यहि जान तत्व सों ज्ञानी जना
बस मोहे भजै, बस मोहे भजै,
मुझ माहीं सतत जिन चित्त लग्यो,
मुझ माहीं जिनके प्राण परयो.
वासुदेवहिं चित्त रमाय हिया ,
मन चित्त कथन गुण गान करयो
अस मेरौ सतत जिन ध्यान कियौ,
तिन योग सों योग, मैं योग कियौ.
जिन मेरौ भजन मन प्रीत कियौ,
बिनु संशय मोसों ही योग कियौ
अंतर्मन अंतस माहीं बसौं,
मैं उनकौ अनुग्रह करवन कौ,
मैं ज्ञान के दीप सों शेष करूँ,
अज्ञान तिमिर तिन हिय मन कौ
अर्जुन उवाच
शुचि धाम परम प्रभु पावन है,
परब्रह्म परम प्रभु आप महे,
अस दिव्य ऋषि जन नित्य कहें ,
बिनु जन्म चहुँ दिसि व्याप रहे
ऋषि देवल व्यास महर्षि और,
नारद देवर्षि कहवत हैं,
ऋषि असित, स्वयं प्रभु आप भी तौ,
अस मोरे विषय यहि कहवत हैं
हे केशव ! मोसों कहवत जो
वही सत्य -सनातन मानत हूँ.
न ही देव न दानव जानत हूँ ,
तोरी लीला अद्भुत मानत हूँ
सब प्रानिन के सरजन हारे,
हे देवों के देव ! कहाँ कत हो?
हे पुरुषोत्तम ! स्वामी जग के,
तुम आपु ही आपु को जानति हो
तुम समरथ आपु बतावन कौ,
प्रभु आपुनि दिव्य विभूतिन कौ,
ब्रह्माण्ड में आपु ही वास करै,
सरजन हारो तू कण-कण कौ
केहि भांति तोरौ , योगेश्वर मैं,
करि पाऊं सतत चिंतन कैसे?
केहि-केहि भावन सुमिरन करिकै ,
कथ पावों तोहे भगवन कैसे?
विस्तार सों केशव मर्म कहौ,
तोरी दिव्य विभूति को अंत कहाँ?
अमृतमय वचन तोरे सुनि के ,
मन होत जनार्दन ! तृप्त कहाँ?
श्री कृष्ण उवाच
मैं आपुनि दिव्य विभूतिन कौ ,
श्री कृष्ण बताय रह्यो तोसों.
विस्तारन कौ कछु अंत नाहीं,
अनु कन-कन व्याप रह्यो मोसों
सब प्रानिन की मैं आत्मा हूँ,
मैं वास करूँ हृदयन माहीं.
अति आदि मध्य हूँ, अंत मैं ही ,
मैं अर्जुन! होत कहाँ नाहीं?
बस रह्यो पृथा सुत विष्णु में,
अदिति के बारह पुत्रन में.
मैं मरुत देव माहीं मरीचि ,
नक्षत्रन शशि, रवि ज्योतिन में
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|संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
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श्री भगवानुवाच
तू मोसों घनेरौ, नेह करै
कल्यान मैं चाहूँ , यथार्थ तेरौ ,
मेरौ मर्म सुनौ हे महाबाहो!
तू भक्त मेरौ, मैं पार्थ! तेरौ
ना देवन ना ही महर्षि गण,
उत्पत्ति कौ मोरी जानत हैं,
अति आदि हूँ कारण यहि सबकौ
कोऊ बिरलौ मोहे पिछानत हैं
लोकेश, अनादि अजन्मा, मैं
यहि रूपहीं जो मोहें ज्ञात करें,
तिन तत्त्व सों जानति ज्ञानी जन,
और पाप सबहिं, हुइ जात परे
भय, सत्य, क्षमा, और यश अपयश,
शम, दम, तप, तत्त्व कौ ज्ञान हूँ मैं.
उत्पत्ति-प्रलय सुख-दुखन कौ,
नियमित कर्ता हूँ, विधान हूँ मैं
तप दान कीरति अपकीरति ,
संतोष अहिंसा और सत हैं.
सब प्रानिन के बहु भाव विविध.,
सब मोसों ही तो उपजत हैं
ऋषि सप्त मनु चौदह उनसों,
सनकादि भये पहिले जो भी.
निष्पन्न मोरे संकल्पन सों,
भये प्रजा आदि जग में जो भी
जिन योगन शक्ति विभूतिन कौ,
मोरे तत्वन कौ पहिचानत हैं.
तिन ध्यान योग सों संशय बिनु,
सगरे मुझ माहीं समावत हैं
यहि जगत सृष्टि कौ कारण मैं,
करमन क्षमता मोसों उपजै
यहि जान तत्व सों ज्ञानी जना
बस मोहे भजै, बस मोहे भजै,
मुझ माहीं सतत जिन चित्त लग्यो,
मुझ माहीं जिनके प्राण परयो.
वासुदेवहिं चित्त रमाय हिया ,
मन चित्त कथन गुण गान करयो
अस मेरौ सतत जिन ध्यान कियौ,
तिन योग सों योग, मैं योग कियौ.
जिन मेरौ भजन मन प्रीत कियौ,
बिनु संशय मोसों ही योग कियौ
अंतर्मन अंतस माहीं बसौं,
मैं उनकौ अनुग्रह करवन कौ,
मैं ज्ञान के दीप सों शेष करूँ,
अज्ञान तिमिर तिन हिय मन कौ
अर्जुन उवाच
शुचि धाम परम प्रभु पावन है,
परब्रह्म परम प्रभु आप महे,
अस दिव्य ऋषि जन नित्य कहें ,
बिनु जन्म चहुँ दिसि व्याप रहे
ऋषि देवल व्यास महर्षि और,
नारद देवर्षि कहवत हैं,
ऋषि असित, स्वयं प्रभु आप भी तौ,
अस मोरे विषय यहि कहवत हैं
हे केशव ! मोसों कहवत जो
वही सत्य -सनातन मानत हूँ.
न ही देव न दानव जानत हूँ ,
तोरी लीला अद्भुत मानत हूँ
सब प्रानिन के सरजन हारे,
हे देवों के देव ! कहाँ कत हो?
हे पुरुषोत्तम ! स्वामी जग के,
तुम आपु ही आपु को जानति हो
तुम समरथ आपु बतावन कौ,
प्रभु आपुनि दिव्य विभूतिन कौ,
ब्रह्माण्ड में आपु ही वास करै,
सरजन हारो तू कण-कण कौ
केहि भांति तोरौ , योगेश्वर मैं,
करि पाऊं सतत चिंतन कैसे?
केहि-केहि भावन सुमिरन करिकै ,
कथ पावों तोहे भगवन कैसे?
विस्तार सों केशव मर्म कहौ,
तोरी दिव्य विभूति को अंत कहाँ?
अमृतमय वचन तोरे सुनि के ,
मन होत जनार्दन ! तृप्त कहाँ?
श्री कृष्ण उवाच
मैं आपुनि दिव्य विभूतिन कौ ,
श्री कृष्ण बताय रह्यो तोसों.
विस्तारन कौ कछु अंत नाहीं,
अनु कन-कन व्याप रह्यो मोसों
सब प्रानिन की मैं आत्मा हूँ,
मैं वास करूँ हृदयन माहीं.
अति आदि मध्य हूँ, अंत मैं ही ,
मैं अर्जुन! होत कहाँ नाहीं?
बस रह्यो पृथा सुत विष्णु में,
अदिति के बारह पुत्रन में.
मैं मरुत देव माहीं मरीचि ,
नक्षत्रन शशि, रवि ज्योतिन में
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