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|रचनाकार=सुभद्राकुमारी चौहान
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बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
बारचिंता-बार आती रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद। कैसे भूला जा सकता है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।<br>गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥<br><br>का अतुलित आनंद?
चिंताऊँच-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।<br>कैसे भूला जा सकता है बचपन नीच का अतुलित आनंदज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?<br><br>बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?<br>किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया। बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥<br><br>किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।<br>रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे। किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥<br><br>बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।<br>मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया। बड़ेझाड़-बड़े मोतीपोंछ कर चूम-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥<br><br>चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।<br>दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे। झाड़-पोंछ कर चूम-चूम धुली हुई मुस्कान देख कर गीले गालों को सुखा दिया॥<br><br>सबके चेहरे चमक उठे॥
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।<br>वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई। धुली लुटी हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥<br><br>, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।<br>लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी। लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥<br><br>तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन दिल में उमँग रँगीली एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।<br>तान रसीली थी कानों मन में चंचल छैल छबीली एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥<br><br>
दिल में एक चुभन-सी मिला, खोजती थी यह दुनिया अलबेली थी।<br>जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने। मन अरे! जवानी के फंदे में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥<br><br>मुझको फँसा दिया तूने॥
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।<br>सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं। अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥<br><br>प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।<br>माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है। प्यारीआकांक्षा, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥<br><br>पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥
माना मैंने युवाकिंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-काल का जीवन खूब निराला है।<br>क्षेत्र संसार बना। आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥<br><br>चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।<br>आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति। चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥<br><br>व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥
आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।<br>व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥<br><br>भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप। क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
वह भोलीमैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी। नंदन वन-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।<br>क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?<br><br>फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥
मैं बचपन को 'माँ ओ' कहकर बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।<br>मिट्टी खाकर आयी थी। नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥<br><br>कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥
'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।<br>पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा। कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥<br><br>पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥
पुलक रहे थे अंगमैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।<br>काओ'। मुँह पर थी आह्लादहुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा -लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥<br><br>'तुम्हीं खाओ'॥
पाया मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।<br>बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया। हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥<br><br>उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।<br>मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ। उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥<br><br>मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।<br>मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥<br><br> जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।<br>भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥ <br><br/poem>
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