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फ़ैन्टेज़ी / अजित कुमार

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|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
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एक सपना आँख में झलका :
 
कहीं पर ढोल-ताशे और शहनाई बजे
 
आवाज़ जैसे सिमटकर भर गई मेरे कान में,
 
आँसुओं से बनी, दुख के देश की लज्जावती रानी,
 
थिरककर किसी तारे से उतर आई बड़े अनजान में ।
 
जगमगाता-सा अतीन्द्रिय रूप, स्वप्नों से रंगे परिधान,
 
वह अज्ञातनामा राजकन्या प्राण में घिरने लगी,
 
एक मंडप में, अपरिचित वेद-मन्त्रों-बीच
 
गठबंधन किए, छाया-सरीखी, भाँवरें फिरने लगी।
 
बढा सपना :
 
बजी शहनाई, अगिनती वाद्य गूँजे,
 
रूपसी की बाँह मेरी बाँह में, फिर, दी गई,
 
स्वजन छायाओं-सरीखे बढे, मुझ से लगे कहने:
 
आँसुओं के देश जा , तेरी बिदाई की गई।
 
शुभ्रवसना वधू आगे चली, पीछे मैं विमोहित-सा,
 
नगर, पथ, विजन, वन, सब छोड़ता, बढता गया,
 
बढा कोहरा्, राजकन्या खो गई, छाया अंधेरा
 
मैं शिलाओं-पत्थरों पर दूर तक चढता गया। …
 
एक पर्वत के हिमाच्छादित शिखर पर मैं खड़ा,
 
नीचे अतल सागर उफनता औ’ हिलोरें मारता,
 
रह गया मैं चीख से अपनी, गुफाओं-कंदराओं में
 
बसे निर्दय, अदर्शित शून्य को गुंजारता…
 
फिर: अचानक प्रियतमा मेरी,
 
गरजते अतल जल से
 
जलपरी जैसी उभरकर पास मेरे आ गई,
 
बाँह में भरकर, मुझे भी साथ लेकर, होंठ पर
 
रख होंठ, फिर से लहर बीच समा गई...
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