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जिज्ञासु की कथा / अजित कुमार

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|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
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पूछताछ के दफ़्तर में
 
हम गए ।
 
: वहाँ था काम यही
 
: जो आए, पा जाए हरदम सूचना सही ।
 
:: हमने जो पूछा- सब जाना,
 
:: जो जाना उसको सच माना :
 
ऐसा सच-
 
जो व्यापित हो कल्पों में, युग में, संवत्सर में ।
 
हाँ, पूछताछ के दफ़्तर में
 
हम गए ।
 
: हम जान गये- गाड़ी आती है सात बजे,
 
: नौ... दस...ग्यारह बज गए
 
:: मगर गाड़ी का पता नहीं पाया ,
 
:: हम मान गए-- दो-दो मिल चार बनाएंगे,
 
: अरसे तक करते रहे
 
: किन्तु, हमको वह प्रश्न नहीं आया :
 
अस्पष्ट भाव कुछ
 
व्यक्त किए हमने अपने कुंठित स्वर में ।
 
जब पूछताछ के दफ़्तर में ।
 
हम गए ।
गए थे, वापस भी आए,
 
: पूछते हो-- 'क्या-क्या लाए ?'
 
अरे, लाए क्या- बस, अनुभव,
 
और भी जिज्ञासाएँ नव,
 
कि जिनके समाधान सब भ्रान्त,
 
सभी कुछ मिथ्या से आक्रान्त ,
 
प्रश्न अनगिनती, उत्तर एक ,
 
और अपने मन की यह टेक :
 
भला होता
 
जो रहते अपने ही घर में ।
 
आह । क्यों ? पूछताछ के दफ़्तर में हम गए ?
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