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शरद की साँझ के पंछी / अज्ञेय

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{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
}} <poem>
ऊपर फैला है आकाश, भरा तारों से
 
भार-मुक्त से तिर जाते हैं
 
पंछी डैने बिना फैलाये ।
 
जी होता है मैं सहसा गा उठूँ
 
::उमगते स्वर
 
::जो कभी नहीं भीतर से फूटे
 
::कभी नहीं जो मैं ने -
 
::कहीं किसी ने - गाये ।
 
किन्तु अधूरा है आकाश
 
::हवा के स्वर बन्दी हैं
 
मैं धरती से बँधा हुआ हूँ -
 
::हूँ ही नहीं, प्रतिध्वनि भर हूँ
 
जब तक नहीं उमगते तुम स्वर में मेरे प्राण-स्वर
 
तारों मे स्थिर मेरे तारे,
 
जब तक नही तुम्हारी लम्बायित परछाहीं
 
कर जाती आकाश अधूरा पूरा ।
 
भार-मुक्त
 
ओ मेरी संज्ञा में तिर जाने वाले पंछी
 
देख रहा हूँ तुम्हें मुग्ध मैं ।
 
यह लो :
 
लाली से में उभर चम्पई
 
उठा दूज का चाँद कँटीला ।
</poem>
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