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श्रीमती कार्लेकर
अपनी पहली पेंशन लेकर
जब घर लौटीं–
सारी निलम्बित इच्छाएँ
अपना दावा पेश करने लगीं।
जहाँ जो भी टोकरी उठाई
उसके नीचे छोटी चुहियों-सी
दबी-पड़ी दीख गई कितनी इच्छाएँ!
श्रीमती कार्लेकर<br>अपनी पहली पेंशन लेकर<br>जब घर लौटीं–<br>सारी निलम्बित इच्छाएँ<br>अपना दावा पेश करने लगीं।<br><br> जहाँ जो भी टोकरी उठाई<br>उसके नीचे छोटी चुहियों-सी<br>दबी-पड़ी दीख गई कितनी इच्छाएँ!<br><br> श्रीमती कार्लेकर उलझन में पड़ीं<br>क्या-क्या ख़रीदें, किससे कैसे निबटें !<br>सूझा नहीं कुछ तो झाड़न उठाई<br>झाड़ आईं सब टोकरियाँ बाहर<br><br> चूहेदानी में इच्छाएँ फँसाईं<br>(हुलर-मुलर सारी इच्छाएँ)<br>और कहा कार्लेकर साहब से–<br>“चलो ज़रा, गंगा नहा आएँ!” <br><br/poem>
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