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मंछा बाबा / त्रिलोचन

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{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिलोचन
}}<poem>चारों दिशाएँ खुली हैं
बादलों के टुकडे एकाध
आकाश की नीलिमा को
ढकने में ढक नहीं पाते हैं
हवा उन्हें तितर-बितर करती है-
पहले मंछी बाबा की शाखा प्रशाखाएँ
पूरब, पच्छिम, उत्तर, दक्खिन तक सभी ओर
फैली थीं, जैसे हवा इन हाँथो को हिला हिला कर
अपने पास बुला रही हो।

और अब
मंछा बाबा नहीं हैं
लँगडी आँधी आई थी
मंछा बाबा जड़ से उखड़ गए
बाबा का अंग अंग लोग काट ले गए
ख़ाली भूमि खेत है।

ग्राम देवता का अंत हो गया
वहाँ अब बारातें नहीं टिकतीं
पूजा पाठ भी नहीं होते
और कड़ाहियाँ भी नहीं चढतीं।

23.09.2002</poem>
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