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|रचनाकार=द्विजेन्द्र 'द्विज'
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उस आदमी का ग़ज़लें कहना क़ुसूर होगा
दुखती रगों को छूना जिसका शऊर होगा
गर्दन झुकाएगा जो, न तो जी— हु़ज़ूर होगा
उनकी नज़र में यारो! वही बे—शऊर होगा
दीमक लगी हुई हो जिस पेड़ की जड़ों में
कैसे भला फिर उसके पत्तों पे नूर होगा
नफ़रत की आँधियों के क़ातिल जुनूँ के पीछे
किसी मतलबी खुदा का शातिर ग़ुरूर होगा
कुछ भी कहें हम आख़िर दरबार का है बन्दा
कानून की नज़र में, वो बेक़सूर होगा
गर देखना है उसको,नज़रें गड़ा के देखो
फिर आइना कब असली चेहरे दिखा सकेगा
ख़ुशफ़हमियों के हाथों जब चूर—चूर होगा
हर आदमी के अन्दर ख़ुद को जो देखता है
उसके ज़ेह्न में कैसे कोई फ़तूर होगा
बन्दिश भी है क़लम पर लफ़्ज़ों पे लाख पहरे
कहता है दिल कि फिर भी कहना ज़रूर होगा
कोहरे में, धुंध में भी सब साफ़ जिसने देखा
‘द्विज’! वो ‘कबीर’,‘ग़ालिब’ ,‘तुलसी’ या ‘सूर’ होगा
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