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05:07, 11 नवम्बर 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}<poem>वीराने में पत्थर से टकरा कर
लौटती हुई लहरें
मेरे मन के भीतर के
सूख चुके स्नेह से
धुवां धुवां बाती को
फूंक कर लाल तो करती है
लालिमा फिर सहमती है
धुवा और कसैला कसैला सा फैल जाता है
मैने देखा है कण कण पाषाण को
लहरों के अनवरत समर्पण पर आत्मसात होते..
मैने देखा है पाषाण का अस्तित्व छीन लेती
लहरों का आत्मबल
ये कैसी क्षुधा थी कि
आग सीनें में आँखों में
और पलकों पर धर गयी
और ये कैसी सदा है
कि दिल की सारी तपिश पी कर भी
कहती है क्षुधा है क्षुधा है
मेरे मन के सूखे हुए सोतो
सुनो मरुस्थल का राग
वीरानियों में हवाओं का मृदंग
मैं कांप उठता हूं अपनें भीतर के व्योम की
घुटी घुटी चीखों के राग से
कहता है मुर्दे!! जाग रे! जाग रे!
मैं खमोश रहता हूँ
थक जाती है ध्वनि भी प्रतिध्वनि भी
लहरें लौट जाती हैं...
लहरें पुनः लौटती हैं नयी जिजीविषा लिये
चट्टान के मोम होनें की प्रक्रिया जारी है
लेकिन मेरे मन की आशावादिता क्यों मर गयी?
१८.०४.१९९५
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