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प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता। जाता, मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी ,खूबियों के साथ परदे को उठाता। उठाता, :::एक चेहरा -सा लगा तुमने लिया था ,:::और मैंने था उतारा एक चेहरा। चेहरा,:::वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर :::ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने। रात आधी , खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार ' तुमने।
और उतने फ़ासले पर आज तक सौ यत्न करके भी न आये फिर कभी हम। हम,फिर न आया वक्त वैसा , फिर न मौका उस तरह का , फिर न लौटा चाँद निर्मम। निर्मम, :::और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ। बताऊँ,::क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं? -- :::बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो :::रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने। रात आधी , खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार ' तुमने।
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