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{{KKRachna
|रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र
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सखी हम कहा करैं कित जायँ।
बिनु देखे वह मोहनि-मूरति नैना नाहिं अघायँ॥
कछु न सुहात धान-धन पति-सुत मात-पिता परिवार।
बसति एक हिय में उनकी छबि, नैननि वही निहार॥
बैठत उठत सयन सोवत निस चलत फिरत सब ठौर।
नैनन तै वह रूप रसीलो, टरत न एक पल और॥
हमरे तन धन सरबस मोहन, मन बच क्रम चित माहिं।
पै उनके मन की गति सजनी, जानि परत कछु नाहिं॥
सुमिरन वही, ध्यान उनको ही, मुख में उनको नाम।
दूजी और नाहिं गति मेरी, बिनु मोहन घन-श्याम॥
नैना दरसन बिन नित तलफैं, बचन सुनन कों कान।
बात करन कों रसना तलफै, मिलिबे कों ए प्रान॥
हम उनकी सब भाँति कहावहिं, जगत-बेद सरनाम।
लोक-लाज पति गुरुजन तजिकै, एक भज्यौ घनश्याम॥
सब ब्रज बरजौ, परिजन खीझौ, हमरे तो हरि प्रान।
’हरीचंद’ हम मगन प्रेम-रस, सूझत नाहिंन आन॥
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