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|रचनाकार=रवीन्द्र दास
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काफी नहीं था उसका सिर्फ़ स्त्री होना
दुनिया की और भी रवायतें थीं
खुले आसमान में
मुक्त उड़ान के लिए चाहिए था पंख भी ....
पर जब समझ में आया
हो चुकी थी शाम
नए दिन का नया अँधेरा !
करना होगा इंतजार रात ख़त्म होने का
करनी होगी तैयारी नई शुरुआत की ।
दूर ही रखा गया था उसे
असल पाठ से
व्याख्याओं के उत्तेजक तेवर ने
भरमा दी थी बुद्धि
कि कानून के लिहाज से
मिलेगी सज़ा हर अपराधी को
यह सुनना सुखद है जितना
उतना ही मुश्किल है -
साबित करना अपराधी का अपराध।
काफी नही था उसका विद्रोह करना
चूँकि तय नहीं थी मंजिल
कोई रास्ता भी नहीं था मालूम
घूर रही थी
पेशेवर विद्रोहियों की रक्तिम आँखें
भाग तो सकती है अभी भी
पर कहाँ ? रस्ते का पता जो नहीं है !
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