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Kavita Kosh से
लगा तो दिया था निशान नियति ने
उस द्वार पर कि भूलूँ न
फिर भी हुआ क्या आवारगी बनी नसईबनसीब
देख रही हूँ हैरान हो
निशाँ अपने क़दमों के
ऊपर से...।
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