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|रचनाकार=जगदीश गुप्त
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::::सच हम नहीं सच तुम नहीं
::::सच है सतत संघर्ष ही ।

संघर्ष से हट कर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम।
जो नत हुआ वह मृत हुआ ज्यों वृन्त से झर कर कुसुम।
::::जो पंथ भूल रुका नहीं,
::::जो हार देखा झुका नहीं,
जिसने मरण को भी लिया हो जीत, है जीवन वही।
::::सच हम नहीं सच तुम नहीं।

ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे।
जो है जहाँ चुपचाप अपने आपसे लड़ता रहे।
::::जो भी परिस्थितियाँ मिलें,
::::काँटें चुभें, कलियाँ खिलें,
टूटे नहीं इन्सान, बस सन्देश यौवन का यही।
::::सच हम नहीं सच तुम नहीं।

हमने रचा आओ हमीं अब तोड़ दें इस प्यार को।
यह क्या मिलन, मिलना वही जो मोड़ दे मँझधार को।
::::जो साथ कूलों के चले,
::::जो ढाल पाते ही ढले,
यह ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी जो सिर्फ़ पानी-सी बही।
::::सच हम नहीं सच तुम नहीं।

अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना।
अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना।
::::आकाश सुख देगा नहीं,
::::धरती पसीजी है कहीं,
हर एक राही को भटक कर ही दिशा मिलती रही
::::सच हम नहीं सच तुम नहीं।

बेकार है मुस्कान से ढकना हृदय की खिन्नता।
आदर्श हो सकती नहीं तन और मन की भिन्नता।
::::जब तक बंधी है चेतना,
::::जब तक प्रणय दुख से घना,
तब तक न मानूँगा कभी इस राह को ही मैं सही।
::::सच हम नहीं सच तुम नहीं।
</poem>