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अजीब तर्ज़-ए-मुलाकात मुलाक़ात अब के बार रही
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
तुम्हारी नजरों नज़रों से लगता था जैसे मेरे बजाए
तुम्हारे ओहदे की देनें तुम्हें मुबारक थीं
सो तुमने मेरा स्वागत उसी तरह से किया
जो अफ्सरानअफ़सराने-ए-हुकूमत के ऐतक़ाद में हैतकल्लुफ़न तक़ल्लुफ़न मेरे नज़दीक आ के बैठ गए
फिर एहतराम<ref>आदर</ref> से मौसम का ज़िक्र छेड़ दिया
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए
मगर तुमने न हमेशा कि तरह ये पूछा
कि वक्त कैसा गुजरता गुज़रता है तेरा जान-ए-हयात ?
पहर दिन की अज़ीयत<ref>अत्याचार</ref> में कितनी शिद्दत है
उजाड़ रात की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त रावी -रवी का तुझे भी शिकवा हैगमग़म-ए-फिराक़ फ़िराक़ के किस्से क़िस्से निशात-ए-वस्ल<ref>मिलन की खुशी</ref> का ज़िक्र
रवायतें ही सही कोई बात तो करते.....
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