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Kavita Kosh से
मन मारे मनुहार पड़ी हैं बँधी कँटीले तारों से!
यहाँ कँटीले तार खिंचे हैं जिनके पार रँगीले बादल!
साँझ-सुबह के बादल दिखते जैसे खिले डाल पर पाटल!
पूछो, लाल रंग कैसा है, बिंधी हुई मनुहारों से!
बुलबुल गीत यहाँ भी गाती, कभी सुबह पीलो उड़ आती,
नील चँदोवे में रजनी भी रत्नों के नक्षत्र सजाती,
हँसते रोते, सोते जगते, हम भी घिर दीवारों से!
बाहर करवट लेती दुनिया, बदल रहा जग बिना बताए,
कौन जीवितों की समाधि पर फूल गिराए, ओस चुआए?
सजते नहीं नए घर, प्यारे, उजड़े बन्दनवारों से!
युग-परिवर्तन के इस युग में बैठे कर्तव्यों से वंचित,
दुनिया के मुँहदेखा, बाकी केवल बीते की सुधि संचित,
दूर समय की धारा बहती छूटे हुए कगारों से!
पर जो दूर गरजता सागर हम भी उसकी एक लहर हैं,
उस विशाल के कण हैं हम भी, महाकाल के एक प्रहर हैं!
गति को कब तक बाँध सकेंगे, पूछो पहरेदारों से!
संसृति के अगाध अंबुधि में लहर, लहर पर क्षुब्ध फेनकण;
झलकेंगे हम मिटते मिटते प्रलय-लास में क्या न एक क्षण!
हाथ उठा कर होड़ लगाएँ, लहरों की ललकारों से!
वह्नि-वृष्टि की चिनगारी हम, दब कर बीज बनेंगे ऐसा,
जिसके दल होंगे लपटों से, और फूल होगा शोले-सा;
कुट-पिट कर कुछ निखरेंगे ही हम नित नए प्रहारों से!
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