भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
कौंध रही बिजली रह रह कर चुँघिया जाती हैं आँखें,
मन मारे मन-पंछी बैठा है समेट भीगी पाँखें!
::(२)
वह बरसाती रात शहर की! वह चौड़ी सड़कें गीली!
बिजली की रोशनी बिखरती थी जिनपर सोनापीली!
दूर सुनाई देती थी वह सरपट टापों की पट पट,
कभी रात के सूनेपन में नन्हीं बूँदों की आहट!
आती जाती रेलगाड़ियाँ भी तो एक गीत गातीं!
कहीं किसी की आशा जाती, कहीं किसी की निधि आती!
पार्क सिनेमा सभी कहीं ये बूँदे बरस रही होंगी,
किसे ज्ञात--मेरी आँखें अब किसको खोज रहीं होंगी!
घर न कर सका कभी किसी के मन में मैं जो अभिशापित;
सोच रहा हूँ, अपने घर से भी अब मैं क्यों निर्वासित!
यही महीना, गए साल जब बरसा था जमकर पानी;
रातों रात द्वार पर कामिनि फूल उठी थी मनमानी!
तीव्र गंध थी भरी हृदय में, सहज खुल गईं थीं आँखें!
आज यहाँ मन मारे बैठा मन-पंछी, भीगी पाँखें!
छोड़ समंदर की लहरों की नीलम की शीतल शय्या,
आती थी वह बंगाले से जंगल जंगल पुरवय्या!
झीनी बूँदोंबीनी धानी साड़ी पहने थी बरसात,
गरज तरज कर चलती थी वह मेघों की मदमत्त बरात!
झर लगता था और वहीं पर बूँदें नाचा करती थीं,
बाजे-से बजते पतनाले, सड़क लबालब भरती थीं!
कुरता चिपका जाता तन पर, धोती करती मनमानी,
छप छप करते थे जूते जब, बहता था सिर से पानी!
भरी भरन उतरी सिर पर से, कहाँ साइकिल चलती थी!
घर के द्वारे कीच-कांद थी, चप्पल चपल फिसलती थी!
</poem>