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माया / नरेन्द्र शर्मा

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|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा
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दिखाती पहले धूप रूप की ,
 
दिखाती फ़िर मट मैली काया !
 
दुहरी झलक दिखा कर अपनी
 
मोह - मुक्त कर देती माया !
असम्भाव्य भावी की आशा ,
 
पूर्ति चरम शाश्वत आपूर्ति की ,
 
ललक कलक में झलक दिखाती
 
अनासक्त आसक्ति मूर्ति की !
 
 
अंत सत्य को सुगम बना तू
 
हरी की अगम अछूती छाया !
मन में हरी , रसना पर षड-रस ,
 
अधर धरे मुस्कान सुहानी !
 
हरी तक उसे नचाती लाती
 
हरी की जिसने बात न मानी !
 
शकुन दिखा कर अंध तनय को ,
 
हरी-माया ने खेल दिखाया !
संग्न्याहत हो या अनात्मारत
 
आत्म मुग्ध या आत्म प्रपंचक ,
 
पहुँचाया है हर झूठे को ,
 
माया ने झूठे के घर तक !
 
लगन लगा कर , मोह मगन को ,
 
मृग लाल , जल निधि पार कराया !
 
अंहकार को निराधार कर ,
 
निरंकार के सम्मुख लाती !
 
गिरिजापति का मान बढ़ाने
 
रति के पति को भस्म कराती !
 
नेह लगाया यदि माया से ,
 
निज को खो , हरी - हर को पाया !
अपनी समझ लिए हर कोई ,
 
करता रहता तेरी - मेरी !
 
वोह अनेक जन मन विलासिनी
 
एक मात्र श्री हरी की चेरी !
 
मैंने इस सहस्ररूपा को ,
 
राममयी कह शीश झुकाया !
 
'''संकलन : लावण्या
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