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दिल्लियाँ / शलभ श्रीराम सिंह

167 bytes added, 14:24, 20 दिसम्बर 2009
{{KKRachna
|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
|संग्रह=उन हाथों से परिचित हूँ मैं / शलभ श्रीराम सिंह
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हाथी की नंगी पीठ पर
 
घुमाया गया दाराशिकोह को गली-गली
 
और दिल्ली चुप रही
 
लोहू की नदी में खड़ा
 
मुस्कुराता रहा नादिर शाह
 
और दिल्ली चुप रही
 
लाल किले के सामने
 
बन्दा बैरागी के मुँह में डाला गया
 ताजा ताज़ा लहू से लबरेज लबरेज़ अपने बेटे का कलेजा 
और दिल्ली चुप रही
गिरफ्तार गिरफ़्तार कर लिया गया बहादुरशाह जफर जफ़र को 
और दिल्ली चुप रही
 दफा दफ़ा हो गए मीर गालिब 
और दिल्ली चुप रही
 
दिल्लियाँ
 
चुप रहने के लिए ही होती हैं हमेशा
 
उनके एकान्त में
 
कहीं कोई नहीं होता
 
कुछ भी नहीं होता कभी भी शायद
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