भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
तोड़ प्रकृति से भी माया,
:बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
::::भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल-तरंगों को,
:तेरे भ्रू-भंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
::::भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल-बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
:कह, तब तेरे ही प्रिय-स्वर से कैसे भर लूँ सजनि! श्रवन?
::::भूल अभी से इस जग को!
ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा रश्मि से उतरा जल,
:ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहाला बहला दूँ जीवन?::::भूल अभी से इस जग को!
'''रचनाकाल: जनवरी १९१८'''
</poem>