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Kavita Kosh से
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मेरे बुरे दिनों कि साथी, मधुर संगिनी
सूने चीड़ वनों में तुम्हीं राह देखतीं
पास बैठकर खिड़की के भारी मन से
और सिलाइयाँ दुर्बल हाथों में तेरे,
टूटे-फूटे फाटक से अँधियारे पर
और किसी बेचैनी, चिन्ता, शंका से
कभी तुम्हें लगता है जैसे छाया-सी
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