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|संग्रह=पत्थर हो जाएगी नदी / मोहन राणा
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बदलते हुए जीवन को देखते उसे जीते हुए
 
मैं ठीक करता टूटी हुई चीज़ों को
 
उठा कर सीधा करता
 
गिरी हुई को
 
कतरता पोंछता झाड़ता बुहारता,
 
जीते हुए बदलते जीवन को देखता
 
छूटता गिरता टूटता गर्द होता,
 
और आते हुए लोग मेरे बीतते हुए दृश्य को
 
कहते सामान्य
 
सब कुछ नया साफ सुथरा
 
जैसे मैं देखता उसे इस पल
 
और बदलता तभी
 
छूटता मेरे हाथों से
 
जैसे वह कभी न था वहाँ,
 
कौन! रुक कर पूछता मैं
 
अब तब नहीं जाना मैंने तुम्हें
  '''रचनाकाल: 11.9.2005</poem>
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