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<poem>
::'''राही'''
 
सूखी लकड़ी! क्यों पड़ी राह में
यों रह-रह चिल्लाती है?
::'''बाँसुरी'''
 
बजता है समय अधीर पथिक,
मैं नहीं सदाएँ देती हूँ।
मोहन! डाली से झुको, झुको।"
फूली कदम्ब की डाली पर
लेकिन, मेरा वह इठलाना,
उस मृगनयनी को बिंधी देख
पंचम में और पहुँच जाना।
 
मदभरी सुन्दरी ने आखिर
होकर अधीर दे शाप दिया--
"कलमुँही, अधर से लग कर भी
क्या तूने केवल जहर पिया?
 
जा, मासूमों को जला कभी
तू भी न स्वयं सुख पायेगी।
मोहन फूँकेंगे पाँच--जन्य
तू आग-आग चिल्लायेगी।"
 
सच ही, मोहन ने शंख लिया,
मुझसे बोले, "जा, आग लगा,
कुत्सा की कुछ परवाह न कर,
तू जहाँ रहे ज्वाला सुलगा।"
 
तब से ही धूल-भरे पथ पर
मैं रोती हूँ, चिल्लाती हूँ।
चिनगारी मिलती जहाँ
गीत की कड़ी बनाकर गाती हूँ।
 
मैं बिकी समय के हाथ पथिक,
मुझ न रहा मेरा बस है।
है व्यर्थ पूछना बंसी में
कोई मादक, मीठा रस है?
 
जो मादक है, जो मीठा है,
जानें वह फिर कब आयेगा,
गीतों में भी बरसेगा या
सपनों में ही मिट जायेगा?
 
जलती हूँ जैसे हृदय-बीच
सौरभ समेट कर कमल जले,
बलती हूँ जैसे छिपा स्नेह
अन्तर में कोई दीप बले।
 
तुम नहीं जानते पथिक आग
यह कितनी मादक पीड़ा है।
भीतर पसीजता मोम
लपट की बाहर होती क्रीड़ा है।
 
मैं पी कर ज्वाला अमर हुई,
दिखला मत रस-उन्माद मुझे,
रौशनी लुटाती हूँ राही,
ललचा सकता अवसाद मुझे?
 
हतभागे, यों मुँह फेर नहीं,
जो चीज आग में खिलती है,
धरती तो क्या? जन्नत में भी
वह नहीं सभी को मिलती है।
मेरी पूँजी है आग, जिसे
जलना हो, बढ़े, निकट आये,
मैं दूँगी केवल दाह,
सुधा वह जाकर कोयल से पाये।
'''रचनाकाल: १९४६'''
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