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रात को
पुरानी कमीज के धागों की तरह
उघडता रहता है जिस्मं
छोटुआ का

छोटुआ पहाड से नीचे गिरा हुआ
पत्थर नहीं
बरसात में मिटटी के ढेर से बना
एक भुरभुरा ढेपा है
पूरी रात अकडती रहती है उसकी देह
और बरसाती मेढक की तरह
छटपटाता रहता है वह

मुंह अंधेरे जब छोटुआ बडे-बडे तसलों पर
पत्थर घिस रहा होता है
तो वह इन अजन्में शब्दोंह से
एक नयी भाषा गढ रहा होता है
और रेत के कणों से शब्द झडते हुए
धीरे-धीरे बहने लगते हैं

नींद स्वप्न और जागरण के त्रिकोण को पार कर
एक गहरी बोझिल सुबह में
प्रवेश करता है छो‍टुआ
बंद दरवाजों की छिटकलियों में
दूध की बोतलें लटकाता छोटुआ
दरवाजे के भीतर की मनुष्युता से बाहर आ जाता है
पसीने में डूबती उसकी बुश्शर्ट
सूरज के इरादों को आंखें तरेरने लगती हैं

और तभी छोटुआ
अनमनस्क सा उन बच्चों को देखता है
जो पीठ पर बस्ता लादे चले जा रहे हैं

क्या दूध की बोतलें अखबार के बंडल
सब्जी की ठेली ही
उसकी किताबें हैं...
दूध की खाली परातें
जूठे प्लेट चाय की प्यालियां ही
उसकी कापियां हैं...
साबुन और मिटटी से
कौन सी वर्णमाला उकेर रहा है वह ...

तुम्हारी जाति क्या है छोटुआ
रंग काला क्यों है तुम्हारा
कमीज फटी क्यों है
तुम्हालरा बाप इतना पीता क्यों है
तुमने अपनी कल की कमाई
पतंग और कंचे खरीदने में क्यों गंवा दी
गांव में तुम्हारी मां बहन और छोटा भाई
और मां की छाती से चिपटा नन्हंका
और जीने से उब चुकी दादी
तुम्हारी बाट क्यों जोहते हैं...
क्या तुम बीमार नहीं पडते
क्या तुम स्कूल नहीं जाते
तुम एक बैल की तरह क्यों होते जा रहे हो...

बरतन धोता हुआ छोटुआ बुदबुदाता है
शायद खुद को कोई किस्सा सुनाता होगा
नदी और पहाड और जंगल के
जहां न दूध की बोतलें जाती हैं
न अखबार के बंडल
वहां हर पेड पर फल है
और हर नदी में साफ जल
और तभी मालिक का लडका
छोटुआ की पीठ पर एक धौल जमाता है -
साला ई त बिना पिए ही टुन्न है
ई एत गो छोडा अपना बापो के पिछुआ देलकै
मरेगा साला हरामखोर
खा-खा कर भैंसा होता जा रहा है
और खटने के नाम पर
मां और दादी याद आती है स्साले को

रेत की तरह ढहकर
नहीं टूटता है छोटुआ
छोटुआ आकाश में कुछ टूंगता भी नहीं
न मां को याद करता है न बहन को
बाप तो बस दारू पीकर पीटता था

छोटुआ की पैंट फट गई है
छोटुआ की नाक बहती है
छोटुआ की आंख में अजीब सी नीरसता है
क्या छोटुआ सचमुच आदमी है
आदमी का ही बच्चा है ...
क्या है छोटुआ

पर
पहाड से लुढकता पत्थर नहीं है छोटुआ
बरसात के बाद
मिटटी के ढेर से बना ढेपा है वह
धीरे-धीरे सख्ते हो रहा है वह
बरसात के बाद जैसे मिटटी के ढेपे
सख्त होते जाते हैं
सख्त होता जा रहा वह
इतना सख्त
कि गलती से पांव लग जाएं
खून निकल आए अंगूठे से ...

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